मोनिका अरोरा
सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ अधिवक्ता
(लेखिका मामले में संस्कृत शिक्षक संघ की अधिवक्ता हैं।)
advocatemonikaarora@yahoo.com
- Danik Bhaskar Dec 05, 2014, 07:52 AM IST
केंद्रीय
विद्यालयों में जर्मन भाषा के स्थान पर कथित रूप से संस्कृत पढ़ाने पर
पिछले दिनों जो आक्रोश व्यक्त किया गया उसे देखकर मुझे धक्का लगा। मीडिया
में इसे देश को काले युग में ले जाने वाला प्रतिगामी फैसला बताया गया।
इसकी तुलना ब्रिस्बेन में जी-20 सम्मेलन की घटना से कीजिए, जिसमें जर्मन चांसलर एंगेला मर्केल ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
से मिलने पर उनके सामने जर्मन भाषा का मुद्दा उठाया। भारत में जर्मन
राजदूत ने बयान जारी किया और दूतावास के अधिकारी इस मुद्दे से जुड़े
विभिन्न लोगों व संस्थाओं से मुलाकातें कर रहे हैं। जर्मन भाषा आगे बढ़ाने
की उनकी कोशिश काबिल-ए-तारीफ है। हालांकि, आज़ादी के 60 साल बाद भी हम उसी
औपनिवेशिक मानसिकता में जी रहे हैं, जिसमें संस्कृत व हमारी प्राचीन
संस्कृति से जुड़ी किसी भी बात को आलोचना की दृष्टि से देखा जाता है। मैं
यहां कानूनी दृष्टि से कुछ तथ्य रखना चाहती हूं।
केंद्रीय विद्यालय संगठन ने 5 जनवरी 2011 को सर्कुलर जारी कर 2011-12
के सत्र से कक्षा 6 से 8 तक तीसरी भाषा के रूप में संस्कृत की बजाय जर्मन,
फ्रेंच, चीनी और स्पेनिश जैसी विदेशी भाषाएं पढ़ाने के निर्देश दिए।
केंद्रीय विद्यालयों के संस्कृत शिक्षकों से इन भाषाओं का प्रशिक्षण लेने
को कहा ताकि समय रहते वे इन भाषाओं को पढ़ाने की योग्यता हासिल कर सकें।
यह संवैधानिक प्रावधानों के साथ सुप्रीम कोर्ट के विभिन्न निर्णयों का भी उल्लंघन था। संविधान के अनुच्छेद 343 (1) में कहा गया है कि आधिकारिक भाषा देवनागरी लिपि में हिंदी भाषा होगी। अनुच्छेद 351 में कहा गया है कि हिंदी के विकास के लिए जरूरत पड़ने पर प्राथमिक रूप से संस्कृत और बाद मेें अन्य भाषाओं से शब्द लिए जाएं। यह भी कहा गया है कि भारत सरकार संविधान की आठवीं अनुसूची में उल्लेखित भाषाओं के विकास के लिए प्रयास करेगी। इसमें कोई विदेशी भाषा नहीं है।
यह संवैधानिक प्रावधानों के साथ सुप्रीम कोर्ट के विभिन्न निर्णयों का भी उल्लंघन था। संविधान के अनुच्छेद 343 (1) में कहा गया है कि आधिकारिक भाषा देवनागरी लिपि में हिंदी भाषा होगी। अनुच्छेद 351 में कहा गया है कि हिंदी के विकास के लिए जरूरत पड़ने पर प्राथमिक रूप से संस्कृत और बाद मेें अन्य भाषाओं से शब्द लिए जाएं। यह भी कहा गया है कि भारत सरकार संविधान की आठवीं अनुसूची में उल्लेखित भाषाओं के विकास के लिए प्रयास करेगी। इसमें कोई विदेशी भाषा नहीं है।
उक्त निर्देश नेशनल करिकुलम फ्रेमवर्क फॉर स्कूल एजुकेशन के त्रिभाषा
फॉर्मूले (राष्ट्रीय एकता के लिए आवश्यक) का भी उल्लंघन है, क्योंकि इसके
विदेशी भाषाओं संबंधी क्लॉज 2.8.5 में कहा गया है कि विदेशी भाषा इस
फॉर्मूले में समायोजित नहीं की जा सकती। हालांकि, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर
आदान-प्रदान में तेजी से वृद्धि होने और सामाजिक, राजनीतिक, शैक्षिक,
सांस्कृतिक और आर्थिक क्षेत्रों में सहयोग देखते हुए विदेशी भाषाएं
माध्यमिक स्तर पर अतिरिक्त विषय के रूप में पढ़ाई जा सकती हैं। 1968 की
राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भी त्रिभाषा फॉर्मूले पर जोर दिया गया है। इसके
साथ भारतीय भाषाओं के विकास और देश की सांस्कृतिक एकता में संस्कृत की
भूमिका को देखते हुए इसे पुनर्जीवित करने पर भी जोर दिया गया है। केंद्रीय
विद्यालय संगठन का सर्कुलर केंद्रीय विद्यालयों की ही संहिता के विरुद्ध
है, जिसके सिलेबस संबंधी चैप्टर 13 के अनुच्छेद 108 में साफ कहा गया है कि
केंद्रीय विद्यालयों में जो तीन भाषाएं पढ़ाई जाएंगी वे हिंदी, अंग्रेजी और
संस्कृत होंगी।
विदेशी भाषा पढ़ाने संबंधी सर्कुलर सुप्रीम कोर्ट के कई फैसलों के
खिलाफ है। संतोष कुमार व अन्य बनाम सचिव, मानव संसाधन विकास मंत्रालय एआईआर
1995 के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट कहा था कि भारतीय संस्कृति
व सभ्यता में संस्कृत का अनूठा स्थान है। यह धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ नहीं
है। जहां तक भारतीय संस्कृति व सभ्यता की अभिव्यक्ति का सवाल है कोई भाषा
इसकी बराबरी नहीं कर सकती। 26 अप्रैल 2013 को दिल्ली हाईकोर्ट में सर्कुलर
के विरुद्ध जनहित याचिका दायर की गई, क्योंकि इससे संस्कृत भाषा व भारतीय
संस्कृति को अपूरणीय क्षति पहुंचने की आशंका है। नवंबर 2014 में सरकार ने
शपथ-पत्र दिया कि उक्त सर्कुलर राष्ट्रीय शिक्षा नीति और त्रिभाषा फॉर्मूले
के खिलाफ है, इसलिए इसे वापस ले लिया गया है। सरकार ने सितंबर में 2011
में गोथा इंस्टीट्यूट/मैक्समूलर भवन के साथ संस्कृत की जगह जर्मन पढ़ाने के
समझौते की जांच के आदेश भी दिए। इस साल इस समझौते का नवीनीकरण नहीं किया
गया। सत्र के मध्य में जर्मन भाषा पर इतनी चीख-पुकार इसलिए मची, क्योंकि
कांग्रेस सरकार ने गैर-कानूनी रूप से सत्र के मध्य में ही समझौता किया था।
चूंकि 8वीं कक्षा तक छात्रों को फेल नहीं किया जाता, इस फैसले का छात्रों
के भविष्य पर कोई प्रभाव पड़ना नहीं था। इस प्रकार मुद्दा जर्मन या किसी
भाषा को हटाने का नहीं, संस्कृत को मनमाने व अवैध तरीके से हटाने का है। हम
सभी भाषाओं का स्वागत करते हैं, लेकिन कोई भी आत्म-अभिमानी देश अपनी भाषा
की कीमत पर अन्य भाषा नहीं पढ़ाता।
सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ अधिवक्ता
(लेखिका मामले में संस्कृत शिक्षक संघ की अधिवक्ता हैं।)
advocatemonikaarora@yahoo.com
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