Monday, 1 December 2014

संस्कृत पाठ्यक्रम में रोचकता का अभाव क्यों है ।
स्कूल, और यहाँ तक कि विश्वविद्यालयों के संस्कृत पाठ्यक्रम केवल वेद, साहित्य, दर्शन और व्याकरण तक सीमित हैं ।
मुझे संस्कृत में पीएच डी के दौरान सुनने को मिला (पढ़ने को नहीं) जिसका आशय है -
रसायन और धातुओं के संयोग से मित्रावरुण नामक तेज पैदा होता है । उससे पानी फट (भंग हो) जाता है और उससे दो वायु निकलती हैं - प्राण वाहु (आप जानते हैं कौन सी) और उदान वायु (शब्दशः- ऊपर जाने वाली वायु, यह भी आप जानते हैं कौन सी है) । इनमें से उदान वायु का प्रयोग विमान को हल्का करने में किया जाता है । *यह किसी कक्षा के पाठ्यक्रम में क्यों नहीं मिला*
उससे पहले कभी बोधायन द्वारा विकर्ण (hypotenuse) की लंबाई ज्ञात करने के तरीके के बारे में पता चला । यह कहीं गणित के पाठ्यक्रम में नहीं मिला । किसी कक्षा के संस्कृत के पाठ्यक्रम में मुझे यह क्यों पढ़ने को नहीं मिला ।
पीएचडी जमा करने के डेढ़ साल बाद मुझे विकीपीडिया पर भास्कराचार्य का उनकी बेटी लीलावती से संवाद अंशतः पढ़ने को मिला । जिसमें उनकी बेटी पूछती है कि पृथ्वी किस चीज पर टिकी हुई है । वे बताते हैं कि किसी चीज़ पर नहीं । पृथ्वी में आकृष्ट-शक्ति है जिसके कारण हर चीज गिरती हुई दिखाई देती है । आकाश में सभी ग्रह बराबर शक्ति से एक दूसरे को खींचते रहते हैं तो भला वे गिरें कैसे? - यह मुझे पीएचडी तक किसी कक्षा के संस्कृत पाठ्यक्रम में पढ़ने को क्यों नहीं मिला ।
उसी संवाद में भास्कराचार्य अपनी बेटी को बताते हैं कि पृथ्वी गोल है । बेटी मान नहीं लेती बल्कि प्रश्न करती है कि कैसे मान लूँ जबकि ऐसा दिखता नहीं है । तो वे उदाहरण देते हैं कि जैसे वृत्त (circle) के सौवें हिस्से को देखा जाए तो सीधा लगता है, वैसे ही पृथ्वी का बहुत छोटा हिस्सा देख पाने के कारण हमें समतल दिखती है । हमने पढ़ा कि कोलंबस को विश्वास था और मैगेलन ने सिद्ध किया कि पृथ्वी गोल है । यह भूगोल के पाठ्यक्रम में पढ़ने को नहीं मिला तो भूगोल के जिम्मेदार जानें पर यह मुझे किसी कक्षा के संस्कृत के पाठ्यक्रम में पढ़ने को क्यों नहीं मिला ।
पीएचडी जमा करके जॉब शुरू करने के कुछ महीनों बाद मुझे महाभारत का उद्धरण पढ़ने को मिला जिसमें पृथ्वी के गोल होने तथा दुनिया के नक्शे के बारे में बताया गया है । मैंने फ़ेसबुक को प्रामाणिक न मानकर वैधता की जाँच की । यह उद्धरण सचमुच महाभारत में हैं । चन्द्रमा में पृथ्वी का प्रतिबिंब होने से असहमत हुआ जा सकता है । उसमें बताया गया है कि जैसे मनुश्य दर्पण में अपना मुख देखता है वैसे पृथ्वी चंद्रमा में (इससे पृथ्वी के गोल होने की जानकारी की पुष्टि होती है) । पृथ्वी के आधे हिस्से में दो पीपल के पत्ते हैं और आधे हिस्से में बड़ा सा खरगोश है । (आधे हिस्से में उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका पीपल के पत्ते के आकार के हैं, बाकी आधे हिस्से में बड़ा सा खरगोश है, यूरोप जिसका सिर है, अफ़्रीका जिसके कान हैं, भारतीय उपमहाद्वीप जिसकी पीठ है और दक्षिण पूर्व एशिया जिसकी पूछ है) (कोष्ठक में लिखी बात महाभारत में नहीं है) । यह मुझे इतिहास और भूगोल के पाठ्यक्रम में नहीं मिला वह अलग बात है, पर यह मुझे किसी कक्षा के संस्कृत के पाठ्यक्रम में पढ़ने को क्यों नहीं मिला ।
अभी कुछ ही महीने पहले विमान-शास्त्र की किसी पुस्तक के एक पृष्ठ पर ’यानस्योपरि सूर्यस्य शक्त्याकर्षण-पञ्जरम्’ पढ़ा । आप समझ सकते हैं कि यह पंजर क्या हो सकता है । आधुनिक सोलर सेल पैनल भी पतली पतली पट्टियों से बनाए जाते हैं, इसी से वोल्टेज बढ़ता है । एक ही खंड होने से वोल्टेज नहीं बढ़ता चाहे जितनी बड़ी पट्टी लगा लें । यह प्रकरण मुझे कहीं संस्कृत के पाठ्यक्रम में पढ़ने को क्यों नहीं मिला ।
हमने कम उमर में ज्योतिष सीखा था तो उसके गणित की गहराई कुछ हद तक पता चली । अंकगणित के साथ रेखागणित और त्रिकोणमिति तो उसमें काफ़ी पहले दिख चुकी थी । पीएचडी जमा करने के सवा साल बाद सी-डैक में एक लेक्चर में सुनने को मिला कि ज्योतिष में कैलकुलस का भी प्रयोग होता है । विचार करके पता चला कि पंचांग में हर दिन ग्रह की स्थिति और गति दी होती है । यह गणना तो कैलकुलस के बिना हो ही नहीं सकती, भले ही उस विधि का नाम कैलकुलस न हो । यह तथ्य मुझे द्वितीय कक्षा से पीएचडी के संस्कृत पाठ्यक्रम में कहीं पढ़ने को क्यों नहीं मिला ।
शायद इसलिए कि पाठ्यक्रम निर्माताओं को या तो यह सब पता ही नहीं था, या लगता था कि बच्चे इसे समझ नहीं पाएँगे । केमिस्ट्री के जटिल केमिकल रिएक्शन पाठ्यक्रम में डालने वालों को तो ऐसी दया नहीं सूझती, क्योंकि वे ज्ञान देना चाहते हैं, तो संस्कृत पाठ्यक्रम बनाने वाले ऐसी दया क्यों दिखाते हैं । क्यों बहुमूल्य ज्ञान की खिड़कियाँ नहीं खोलना चाहते ।

संस्कृत पाठ्यक्रम में रोचकता का अभाव क्यों है
संस्कृत पाठ्यक्रम संबन्धी पोस्ट, जो कि भारतीयविद्वत्परिषद् ग्रुप में भी पोस्ट की है, उसी में अन्य विद्वानों के साथ चर्चा में हमारा आगे का कमेंट प्रस्तुत है ।
डॉ. अम्बा मैडम द्वारा जानकारी रोचक लगी कि कैसे दूसरे विषयों में परिशिष्ट में विषय सम्बन्धी उद्धरण दिये होते थे । यह तरीका भी अपनाया जा सकता है । पर उसके पहले जरूरी है कि संस्कृत के पाठ्यक्रम में दिखना शुरू हों ।
नागराज जी के उठाए बिन्दु भी ध्यान देने लायक हैं । उन्होंने जो बताया है कि कला, शिल्प, राजनीति, दर्शन, अध्यात्म आदि के रूप में वर्गीकरण किया जाना चाहिए इस प्रकार के तथ्यों का, वह उचित है । पर देखा जाए कि इन्हीं विषयों से सम्बन्धित सामग्री बहुतायत से मिलती है । जो नहीं मिलता, वह है तकनीकी ज्ञान का विवरण । एक तरफ़ संस्कृत के लोग कहते हैं कि हमारा विज्ञान बहुत उन्नत था और हमारे ग्रन्थों में मिलता है । दूसरा सबूत माँगता है तो इन्हें पता ही नहीं होता, क्योंकि कहीं पढ़ने को नहीं मिला । सबूत नहीं देने पर मजाक बनाया जाता है कि, जब भी कोई नई खोज होती है उस पर दावा करने लगते हैं पर मिलता कुछ नहीं । ऐसा ही होता था कि जब कहा जाता था कि संस्कृत कंप्यूटर के लिए सबसे उपयुक्त भाषा है । जब पूछा जाए कि कैसे? तो पता नहीं । हमें भी कंप्यूटेशनल लिंग्विस्टिक्स पढ़ने से पहले नहीं पता था ।
आपने जो सावधानी बरतने की बात कही उससे भी सहमत हूँ पर उसका स्वरूप थोड़ा भिन्न है मेरे लिए । ब्रह्मास्त्र का विवरण पढ़कर कहना कि हमारे यहाँ परमाणु अस्त्र थे - इससे बचना चाहिए जो कि सत्य हो भी सकता है और नहीं भी । पर जब विमान के पुर्जे पुर्जे को बनाने का विवरण, उनकी माप के साथ स्पष्ट रूप से मिलता हो तो संकोच नहीं करना चाहिए । क्योंकि वहाँ उसका विवरण तकनीकी प्रकार का है, उड़नखटोले जैसा, या उड़ने वाली कालीन जैसा जादुई या मंत्रचालित जैसा नहीं है । सिंहासन बत्तीसी की कथा पढ़कर - हमने बोलने वाले रोबोट बना लिये थे - यह कहने से बचना चाहिए । पर विमान में बोलकर समय बताने वाला यन्त्र लगाने के विवरण, या उसे बनाने का विवरण पढ़ाने में संकोच नहीं होना चाहिए । (बाद वाली जानकारी उमेश जी से चर्चा पर आधारित) ।
एक विशेष तेज (ऊर्जा) द्वारा पानी का फट जाना, उससे प्राणवायु और उदानवायु निकलना, और उदानवायु का विमान को हल्का करने में प्रयोग होना - इसमें कल्पना की गुंजाइश कम ही लगती है । पर उचित यही है कि हम यह निर्णय न ही दें कि यह खोई तकनीक है, या कल्पना है, या भविष्य का सपना है, या देखो हमारे विद्वानों ने कितने वर्षों पहले इलेक्ट्रोलाइसिस की कल्पना कर ली थी । हम बस प्रकरण बच्चों के सामने प्रस्तुत कर दें । फिर जिसकी जिस ओर रुचि होगी, उस ओर बढ़ेगा और उसे ही समझने देते हैं कि यह विज्ञान है, या तकनीक, या कल्पना । तब वह छात्र आगे चलकर कह सकेगा कि हमारे यहाँ विमान थे इसका सबूत भले अभी हमारे पास न हो पर विमान बनाने की विस्तृत विधि का प्रमाण तो मेरे पास है । उन्हीं में से जिनकी रुचि हो वे उसका प्रयोग करके भी दिखा सकते हैं ।
इसके लिए पाठ्यक्रम में बहुत बड़ा बदलाव करने की जरूरत नहीं है । एक कक्षा की पुस्तक में लगभग ३० पाठ होते हैं । उनमें २-३ पाठ इन विषयों से भी शामिल कर लिये जाएँ । वह बहुत गहन ज्ञान है, बच्चे नहीं समझेंगे - जैसे डर से ऊपर निकला जाए । भास्कराचार्य के सभी सिद्धान्त नहीं पढ़ा सकते, उसकी जरूरत भी नहीं है । पर एक छोटा सा प्रकरण - पृथ्वी किस पर टिकी हुई है, किसी चीज पर नहीं, ऐसा कैसे हो सकता है, पृथ्वी में आकृष्ट-शक्ति होती है जिससे सब गिरता हुआ लगता है, आकाश में सभी ग्रह एक दूसरे को खींचते रहते है इसलिए कोई नहीं गिरता - इसे पढ़ाने में भला क्या दिक्कत होगी, और किस बच्चे को समझने में दिक्कत होगी । पाणिनीय शिक्षा पूरी नहीं पढ़ाई जा सकती पर वर्ण-उद्देश अथवा उच्चारण स्थान और प्रयत्न के विवरण का छोटा प्रसंग तो पढ़ाया जा सकता है । शुल्ब सूत्र नहीं पढ़ाया जा सकता पर उसमें से गणित का सरल प्रकरण तो उद्धृत किया जा सकता है ।

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