Saturday, 29 November 2014

संस्कृत बनाम जर्मन: जानिए सब कुछ




अनुभूति विश्नोई | सौजन्‍य: इंडिया टुडे  24 नवम्बर 2014 | अपडेटेड: 15:41 IST
Kendriya Vidyalaya Khammam
जर्मनवासी भारत के केंद्रीय विद्यालयों में अपनी भाषा की पढ़ाई को बेशक विशेष अहमियत देते रहे हैं. सो, मोटे तौर पर सरकारी अधिकारियों-कर्मचारियों के बच्चों के लिए बनाए गए इन स्कूलों में अचानक जर्मन की पढ़ाई बंद करने का मानव संसाधन मंत्रालय का फैसला इस कदर आहत कर गया कि जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्केल ने इस बारे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से बात की और उनसे इस विवाद को खुद देखने का आश्वासन हासिल किया.

इस मामले से सिर्फ जर्मनी ही हैरान-परेशान नहीं हुआ. करीब 1,100 स्कूलों का संचालन करने वाला केंद्रीय विद्यालय संगठन (केवीएस) भी जर्मन भाषा की पढ़ाई जारी रखने का हिमायती है. इसके 500 स्कूलों में करीब 70,000 छात्रों ने इस भाषा की पढ़ाई के लिए 'हां' की है और दूसरों की भी इसमें दिलचस्पी है. यह केंद्रीय विद्यालयों के छात्रों के लिए नया मौका था और इससे सरकारी स्कूलों की ब्रांडिंग का भी अवसर था. वजह यह भी है कि इसके अलावा किसी विदेशी भाषा की पढ़ाई के लिए सिर्फ मैंडरिन का ही विकल्प है और वह भी महज चार स्कूलों में.

केंद्रीय विद्यालयों में जर्मन भाषा की पढ़ाई के खिलाफ संस्कृत अध्यापकों की जनहित याचिका के विरुद्ध केंद्रीय विद्यालय संगठन ने अगस्त में दिल्ली हाइकोर्ट में दायर हलफनामे में कहा कि वैश्वीकृत दुनिया में विदेशी भाषाओं को सीखने की जरूरतें बढ़ रही हैं. जब मानव संसाधन मंत्रालय ने दलील दी कि केवीएस और जर्मन सांस्कृतिक केंद्र गोएथे इंस्टीट्यूट के बीच करार अवैध है तो केवीएस ने कहा कि करार के नवीकरण के पहले उसमें संशोधन किया जा सकता है. इस पर मंत्रालय की प्रतिक्रिया केवीएस प्रबंधन मंडल की बैठक में उभरकर आई. 27 अक्तूबर को मानव संसाधन मंत्री की अध्यक्षता में हुई बैठक में इस पर जांच बिठा दी गई कि केवीएस ने इस करार पर दस्तखत कैसे किए.

इस मुद्दे पर मंत्रालय और केवीएस के तार कैसे उलझे हुए थे, इसका अंदाजा तीसरी भाषा के रूप में जर्मन की पढ़ाई खत्म करने के तरीके पर भी उठे विवाद से लग जाता है. केवीएस ने मंत्रालय के अडिय़ल रुख को ध्यान में रखकर जर्मन भाषा की पढ़ाई को चरणबद्ध तरीके से दो अकादमिक वर्षों में खत्म करने की पेशकश की, ताकि छात्रों को ज्यादा परेशान न होना पड़े. लेकिन मंत्रालय ने इस पेशकश को सिरे से खारिज कर दिया और बीच सत्र में पढ़ाई बंद करने का निर्देश दिया. बतौर तीसरी भाषा जर्मन की पढ़ाई करने वाले छात्रों को अब अकादमिक सत्र के आखिरी महीनों में छठी क्लास से संस्कृत की पढ़ाई करनी होगी.

सालाना परीक्षा के कुछेक महीने पहले नई भाषा सीखने के लिए छात्रों को मजबूर करने के फैसले को जायज ठहराते हुए स्कूल शिक्षा सचिव राजर्षि भट्टाचार्य ने कहा, ''नई भाषा सीखने की छात्रों की क्षमता को कम करके मत आंकिए." शिक्षाविदों का कहना है कि एचआरडी से यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि उसने त्रिभाषा फॉर्मूला और 1960 के दशक की राष्ट्रीय शिक्षा नीति की प्रासंगिकता और उपयोगिता को कुछ ज्यादा ही समझ लिया है.

1968
की राष्ट्रीय शिक्षा नीति में शामिल त्रिभाषा फॉर्मूले के मुताबिक स्कूलों में हिंदी, अंग्रेजी और कोई एक आधुनिक भारतीय भाषा पढ़ाई जानी चाहिए. इसके पीछे मूल विचार यह था कि उत्तर भारतीय छात्र कोई दक्षिण भारतीय भाषा पढ़ेंगे और दक्षिण के केंद्रीय विद्यालयों के छात्र हिंदी पढ़ेंगे तो राष्ट्रीय एकता मजबूत होगी. लेकिन आधुनिक भारतीय भाषाओं के मद में संस्कृत या किसी प्राचीन भारतीय भाषा की पढ़ाई का अपवाद भी जोड़ दिया गया.

यह फॉर्मूला केंद्रीय विद्यालयों में उतना कामयाब नहीं रहा. छात्र अमूमन तीसरी भाषा के रूप में संस्कृत लेना ही पसंद करते क्योंकि उनके अभिभावकों के तबादले की वजह से अक्सर स्कूल बदलना पड़ता और ऐसे में किसी क्षेत्रीय भाषा की पढ़ाई की कोई तुक नहीं बनती. फिर, 2008 में केवीएस ने जर्मन, फ्रेंच, जापानी, मैंडरिन और स्पेनिश जैसी विदेशी भाषाओं की पढ़ाई शुरू करने का फैसला किया. विदेशी भाषा की पढ़ाई छठी से आठवीं तक अतिरिक्त भाषा के तौर पर शुरू की जानी थी और पायलट प्रोजेक्ट के रूप में जर्मन की पढ़ाई शुरू की गई. जर्मन भाषा में छात्रों की बढ़ती दिलचस्पी को देखकर केवीएस ने छठी से आठवीं कक्षा तक वैकल्पिक तीसरी भाषा के तौर पर संस्कृत के बदले विदेशी भाषा पढ़ाने का फैसला किया.

मैक्समूलर भवन/गोएथे इंस्टीट्यूट जर्मन भाषा के शिक्षकों की ठेके पर भर्ती करने और उन्हें प्रशिक्षित करने में मदद करने में हाथ बंटाने लगा तो इसकी पढ़ाई चल निकली. गोएथे इंस्टीट्यूट के साथ 2011 के करार के बाद 504 केंद्रीय  विद्यालयों में जर्मन की पढ़ाई शुरू हुई और कुल 68,915 छात्र पढ़ रहे हैं. यूपीए सरकार को इससे कोई परेशानी नहीं थी लेकिन एनडीए सरकार के अधीन जब मानव संसाधन मंत्रालय के आदेश पर देश भर के स्कूलों में संस्कृत सप्ताह मनाया गया तो उसके बाद संस्कृत अध्यापकों की जनहित याचिका अदालत में आ गई. जाहिर है, केंद्र में बीजेपी की सरकार होने से संस्कृत के सांस्कृतिक प्रभाव का महत्व भी बढ़ गया.

दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के अध्यापक और 2005 में नेशनल करिकुलम फ्रेमवर्क के भाषा समूह से जुड़े रहे प्रोफेसर अपूर्वानंद बताते हैं कि त्रिभाषा फॉर्मूला उस समय की एक 'रणनीति' मात्र था, उसे हमेशा के लिए कोई पक्का ढांचा बनाने का मकसद नहीं था.

वे कहते हैं, ''त्रिभाषा फॉर्मूला उस समय भारत की विविधता को ध्यान में रखकर राष्ट्र निर्माण की चिंताओं के साथ तैयार किया गया था. फॉर्मूला इस वजह से नहीं बनाया गया था कि इसमें आगे कोई प्रयोग ही न हो. इस मामले में गहरा विवाद है कि शास्त्रीय भाषा संस्कृत को आधुनिक काल की जीवंत भारतीय भाषा कैसे माना जाए. बेशक, इसे प्राचीन भाषा के तौर पर पढ़ाया जाना चाहिए, लेकिन इसे सभ्यता खासकर हिंदू संस्कृति और मूल्यों के वाहक के रूप में पढ़ाया जाता है.

इस विवाद ने कूटनीतिक तापमान बढ़ा दिया. एचआरडी ने जर्मनी के राजनयिकों से कहा कि 2011 के करार का नवीकरण नहीं हो सकता क्योंकि उससे त्रिभाषा फॉर्मूले का उल्लंघन होता है. जर्मनी की ओर से कहा गया कि भारतीय कानूनों की बारीकियों पर गौर करना तो मानव संसाधन मंत्रालय का काम है. मंत्रालय ने सितंबर में करार के नवीकरण पर आपत्तियां उठाते हुए विदेश मंत्रालय को पत्र लिखा. यहां तक कि जर्मनी के राजनयिकों के व्यवहार की भी शिकायत की गई. कहा गया कि जर्मन राजनयिकों ने भारतीय कानूनों के प्रति कोई सम्मान नहीं दिखाया. विवाद उस समय बदतर हो गया जब जर्मनी के विदेश मंत्री फ्रैंक-वाल्टर स्टेनमीयर 6 से 8 सितंबर तक नई दिल्ली में थे और स्मृति ईरानी के साथ करार के नवीकरण पर दस्तखत की अध्यक्षता करने वाले थे. लेकिन मंत्रालय ने पहले ही मन बदल लिया था और स्टेनमीयर करार पर दस्तखत के बिना ही लौट गए.

मोदी ने मर्केल से इस पर पुनर्विचार करने का वादा किया, लेकिन मानव संसाधन मंत्रालय ने केंद्रीय विद्यालयों में तीसरी भाषा के रूप में जर्मन की पढ़ाई तत्काल बंद करने का आदेश जारी करके इस पर विराम लगा दिया. अपने अधिकार के इस नाटकीय और मनमाने प्रदर्शन के साथ मंत्रालय ने बदलते दौर में नई शिक्षा नीति बनाने की अपनी ही पहल को भी दरकिनार कर दिया. यही नहीं, उसे यह एहसास भी तंग नहीं कर रहा है कि वह छात्रों का ही अहित कर रहा है.

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